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Pitru Paksha 2020: पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर है पितृ-पक्ष, जानें- क्या है महत्व

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श्राद्ध में श्रद्धा का सर्वाधिक महत्व है। यदि इसे पूरी श्रद्धा के साथ नहीं किया जाता तो इसे करना निरर्थक है।

श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा से है, जो धर्म का आधार है। माता पार्वती और शिव को ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहा गया है। पितृ-पक्ष हमें अपने पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का अवसर प्रदान करता है। हिंदू धर्म में मान्यता है कि मानव शरीर तीन स्तरों वाला है। ऊपर से दृश्यमान देह स्थूल शरीर है। इसके अंदर सूक्ष्म शरीर है, जिसमें पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, पंच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान समान), पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) के अपंचीकृत रूप, अंत:करण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), अविद्या, काम और कर्म होते हैं। इसी के अंदर कारण शरीर होता है, जिसमें सत, रज, तम तीन गुण होते हैं। यहीं आत्मा विद्यमान है। मृत्यु होने पर सूक्ष्म और कारण शरीर को लेकर आत्मा स्थूल शरीर को त्याग देता है।

मान्यता है कि यह शरीर वायवीय या इच्छामय है और मोक्ष पर्यंत शरीर बदलता रहता है। दो जन्मों के बीच में जीव इसी रूप में अपनी पूर्ववर्ती देह के अनुरूप पहचाना जाता है। मरणोपरांत जीव कर्मानुसार कभी तत्काल पुनर्जन्म, कभी एक निश्चित काल तक स्वर्गादि उच्च या नरकादि निम्न लोकों में सुख-दुख भोग कर पुन: जन्म लेता है। अधिक अतृप्त जीव प्रबल इच्छाशक्ति के चलते यदाकदा स्थूलत: अपने अस्तित्व का आभास करा देते हैं। उचित समय बीतने पर ये पितृ लोक में निवास करते हैं। ‘तैतरीय ब्राह्मण’ ग्रंथ के अनुसार, भूलोक और अंतरिक्ष के ऊपर पितृ लोक की स्थिति है।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, देव, पितृ, प्रेत आदि सभी सूक्ष्म देहधारी भोग योनि में हैं, कर्मयोनि में नहीं। उनमें आशीर्वाद, वरदान देने की असीम क्षमता है, किंतु स्वयं की तृप्ति के लिए वे स्थूल देह धारियों के अर्पण पर निर्भर हैं। महाभारत में पितरों को ‘देवतानां च देवता’ कहा गया है, क्योंकि देव तो सबके होते हैं, पितृ अपने वंशजों के हित साधक। पितरों को संतुष्ट करने के लिए श्राद्ध यानी पिंडदान व तर्पण आवश्यक माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :

तरपन होम करैं विधि नाना।
विप्र जेवांइ देहिं बहु दाना।।

श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा से है, जो धर्म का

आधार है। कहा गया है :

‘श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई।
बिनु महि गंध कि पावहि कोई।।’

माता पार्वती और शिव ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहे गए हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में पितृगण को तृप्त करने हेतु एक पखवारा अलग से निश्चित है। यह भाद्रपद पूर्णिमा से क्वार की अमावस्या तक होता है। जिस तिथि को, जिसका जो पितृ दिवंगत हुआ हो, उस तिथि को उसका श्राद्ध किया जाता है। तीन पिंड दिए जाते हैं- परबाबा, बाबा और पिता। इन्हें भूमि पर कुश बिछाकर अर्पण करते हैं। मुख दक्षिण की ओर करना चाहिए।

‘श्राद्ध प्रकाश’ व अन्यान्य ग्रंथों में इनके विधि-विधान का वर्णन है। इनके अनुसार, चंद्रमा में जो केंद्र स्थान है, उस स्थान के ऊपर के भाग में, जो रश्मि ऊपर की ओर जाती है, उसके साथ पितृप्राण व्याप्त रहता है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा में मध्याह्न के समय जो रश्मि ऊपर की ओर जाती है, वह इस समय 15 दिन को पृथ्वी की ओर हो जाती है, जब चंद्रमा ध्रुव से दक्षिण ‘विश्वजित’ तारे की ओर जाता है, तभी से चंद्र चक्र तिरछा होने लगता है। तब ऊपर के भाग में जो पितृप्राण रहता है, वह पृथ्वी पर आ जाता है और अपने परिवार में घूमता है।

मान्यता है कि उस समय उसके नाम से उसका पुत्र या परिवार तर्पण या जौ, चावल का जो पिंड देता है, उसमें से अंश लेकर चंद्रलोक में अंभप्राण को ऋण चुका देता है। इसीलिए इसे पितृपक्ष कहते हैं। मालूम हो कि हर प्राणी पर जन्म से तीन ऋण होते हैं -देव, पितृ और ऋषि ऋण। पितृ ऋण की पूर्ति पितृ यज्ञ यानी श्राद्ध से होती है। इस रश्मि का नाम ‘श्रद्धा’ भी कहा गया है। चूंकि यह रश्मि मध्याह्न में आती है, अत: श्राद्ध कर्म हेतु मध्याह्न से अपराह्न यानी 12 से 3 के बीच का समय ही श्रेयस्कर माना जाता है, जिसे ‘कुतुप’ काल कहते हैं।

‘वराह पुराण’ के अध्याय 190 के अनुसार, चारों वर्णों के लोग श्राद्ध के अधिकारी हैं। माना जाता है कि जलाशय में जाकर एक बूंद जल भी पितरों को श्रद्धा से अर्पित कर दें, तो वे तुष्ट होकर आशीर्वाद दे देते हैं। वराह पुराण कहता है यदि व्यक्ति साधनहीन है और कहीं वन प्रदेश में है, तो दोनों हाथ उठाकर पितरों को अपनी स्थिति बताकर श्रद्धा समर्पण कर दे, तब भी वे प्रसन्न होकर आशीष दे देते हैं। वशिष्ठ सूत्र और नारद पुराण के अनुसार, गया में श्राद्ध का बहुत महत्व है। स्कंद पुराणानुसार बदरिकाश्रम की ‘गरुड़ शिला’ पर किया गया पिंडदान गया के ही बराबर माना जाता है। श्राद्ध में श्रद्धा का सर्वाधिक महत्व है। यदि इसे पूरी श्रद्धा के साथ नहीं किया जाता तो इसे करना निरर्थक है।

न तत्र वीरा जायन्ते नारोगो न शतायुष:।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धविवर्जितम।।

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